अभिशप्त
माँ का गर्भ
नाम था दूसरा
प्रश्रय अपरिमित का
किन्तु विडंबना
नारी के भाग्य की
अजन्मी वह छोटी-सी अवधी
भी टिक न पाई सुरचित
छोटा- सा वह घरोंदा
ठन्डे लोहयंत्रो की चपेट में
करह उठा
पुत्री ने उस अन्धकार में
अजन्मे ही
प्रस्र्य्दाता की ठंडी आँखों में
आँखे दाल दी
और पुचा
अब तुम भी
और यहाँ भी
औरत जात की चाप लिए
मे पर्वतों की दरारों से
खुराक खींचती थी
अजन्मे ही वह ठप्पा लगने पर
हाय, अब तो
जन्मदात्री ने ही
जन्म देने से इनकार कर दिया.
सी -४ ब्रिज एन्क्लेव
सुन्दरपुर रोड
वारानशी - ५
उत्तर प्रदेश
हिन्दी ब्लॉगजगत के स्नेही परिवार में इस नये ब्लॉग का और आपका मैं संजय भास्कर हार्दिक स्वागत करता हूँ.....!
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