Wednesday 9 May 2012

परवीन शाकिर


अजीब  तर्ज़ -ऐ -मुलाक़ात  अब  की   बार  रही 
तुम्हीं  थे  बदले  हुए  या  मेरी  निगाहें  थीं
तुम्हारी  नज़रों  से  लगता  था  जैसे  मेरइ  बजाये
तुम्हारे  घर  मैं  कोई  और  शख्स  आया  है
तुम्हारे  ओहद  की  देनें  तुम्हें  मुबारक 
सो  तुम  ने  मेरा  स्वागत  उसी  तरह  से  किया
जो  अफसरान -ऐ  -हुकूमत  क  ऐताकाद  मैं  है
तकल्लुफ़ान  मेरे  नजदीक  आ  के  बैठ  गए
फिर  एहतमाम  से  मौसम  का  ज़िक्र  छेड़  दिया 
कुछ  उस  के  बाद  सियासत  की  बात  भी  निकली
अदब  पर  भी  कोई  दो   चार  तबसरे  फरमाए
मगर  न  तुम  ने  हमेशा  की  तरह  ये  पुचा
क्या  वक़्त  कैसा  गुज़रता  है  तेरा  जन -इ -हयात 
पहर  दिन  की  अज़ीयत  मैं  कितनी  शिद्दत  है
उजर  रत  की  तन्हाई  क्या  क़यामत  है
शबों  की  सुस्त  रावी  का  तुझे  भी  शिकवा  है
गम -ऐ  -फिराक  के  किस्से  निशात -ऐ -वस्ल  का  ज़िक्र
रावयातन  ही  सही  कोई  बात  तो  करते


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