Saturday, 26 May 2012
Saturday, 19 May 2012
अमृता प्रीतम
हम ने आज ये दुनिया बेचीं,
और एक दीं खरीद के लाये,
बात कुफ्र की है हम ने..
अम्बर की एक पाक सुराही
बदल का इक जाम उठा कर
घूँट चांदनी पि है हमने
बात कुफ्र की है हमने..
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मेरी आग मुझे मुबारक,
की आज सूरज मेरे पास आया,
और एक कोयला मांग कर उस ने,
अपनी आग सुलगाई है ...
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तिनकों की मेरी झोंद्प्री (हट),
कोई आसन कहाँ बिछाऊँ ,
की तेरी याद की चिंगारी,
मेहमान बन कर आई है ..
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जाने खुदा की रातों को क्या हुआ,
वो अँधेरे में दौड़ -टी और भागती
नींद का जुगनू पकड़ने लगी...
सुनार ने दिल की अंगूठी तराश दी
और मेरी तकदीर उस में
दर्द का मोती जड़ने लगी..
और जब दुनिया ने सूली गाद दी,
तो हर मंसूर की आंखें
अपना मुक्कद्दर पड़ने लगी ...
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सूरज तो द्वार पर आ गया,
लेकिन किसी किरण ने उठ कर
उस का स्वागत नहीं किया..
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Wednesday, 9 May 2012
परवीन शाकिर
अजीब तर्ज़ -ऐ -मुलाक़ात अब की बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नज़रों से लगता था जैसे मेरइ बजाये
तुम्हारे घर मैं कोई और शख्स आया है
तुम्हारे ओहद की देनें तुम्हें मुबारक
तुम्हारी नज़रों से लगता था जैसे मेरइ बजाये
तुम्हारे घर मैं कोई और शख्स आया है
तुम्हारे ओहद की देनें तुम्हें मुबारक
सो तुम ने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
जो अफसरान -ऐ -हुकूमत क ऐताकाद मैं है
तकल्लुफ़ान मेरे नजदीक आ के बैठ गए
फिर एहतमाम से मौसम का ज़िक्र छेड़ दिया
जो अफसरान -ऐ -हुकूमत क ऐताकाद मैं है
तकल्लुफ़ान मेरे नजदीक आ के बैठ गए
फिर एहतमाम से मौसम का ज़िक्र छेड़ दिया
कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली
अदब पर भी कोई दो चार तबसरे फरमाए
मगर न तुम ने हमेशा की तरह ये पुचा
क्या वक़्त कैसा गुज़रता है तेरा जन -इ -हयात
अदब पर भी कोई दो चार तबसरे फरमाए
मगर न तुम ने हमेशा की तरह ये पुचा
क्या वक़्त कैसा गुज़रता है तेरा जन -इ -हयात
पहर दिन की अज़ीयत मैं कितनी शिद्दत है
उजर रत की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त रावी का तुझे भी शिकवा है
गम -ऐ -फिराक के किस्से निशात -ऐ -वस्ल का ज़िक्र
रावयातन ही सही कोई बात तो करते
उजर रत की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त रावी का तुझे भी शिकवा है
गम -ऐ -फिराक के किस्से निशात -ऐ -वस्ल का ज़िक्र
रावयातन ही सही कोई बात तो करते
Monday, 7 May 2012
THE HOUSE OF EMPTY EYES
The house of empty eyes is expensive
let me become a line of dust
God has forgotten to create
a number of people
let the sound of footsteps linger
in my desolate eyes
The taste of fire
is a lamp
and the taste of sleep
is man
pull me as tight as stone
so people won't know
I have no tongue
With God's tongue in my mouth
sometimes I become a flower
sometimes a thorn
Give the chains freedom
for man is more of a prison
than they are
I have to die alone
so
these eyes
this heart
give them to some
empty person
by Sara Shagufta
Sunday, 6 May 2012
अलका निगम
अभिशप्त
माँ का गर्भ
नाम था दूसरा
प्रश्रय अपरिमित का
किन्तु विडंबना
नारी के भाग्य की
अजन्मी वह छोटी-सी अवधी
भी टिक न पाई सुरचित
छोटा- सा वह घरोंदा
ठन्डे लोहयंत्रो की चपेट में
करह उठा
पुत्री ने उस अन्धकार में
अजन्मे ही
प्रस्र्य्दाता की ठंडी आँखों में
आँखे दाल दी
और पुचा
अब तुम भी
और यहाँ भी
औरत जात की चाप लिए
मे पर्वतों की दरारों से
खुराक खींचती थी
अजन्मे ही वह ठप्पा लगने पर
हाय, अब तो
जन्मदात्री ने ही
जन्म देने से इनकार कर दिया.
सी -४ ब्रिज एन्क्लेव
सुन्दरपुर रोड
वारानशी - ५
उत्तर प्रदेश
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